दक्षिण भारत के प्रमुख राजवंश
पल्लव वंश
> पल्लव वंश का संस्थापक सिंहविष्णु (575-600 ई.) था । इसकी राजधानी काँची (तमिलनाडु में काँचीपुरम) थी। वह वैष्णव धर्म का अनुयायी था।
> किरातार्जुनीयम के लेखक भारवि सिंहविष्णु के दरबार में रहते थे।
> पल्लव वंश के प्रमुख शासक हुए : क्रमशः महेन्द्र वर्मन प्रथम (600-630 ई.), नरसिंह वर्मन प्रथम (630-668 ई.), महेन्द्र वर्मन द्वितीय (668-670 ई.), परमेश्वर वर्मन प्रथम (670-680 ई.), नरसिंहवर्मन-II (704-728 ई.), नंदिवर्मन-II (731-795 ई.)।
> पल्लव वंश का अंतिम शासक अपराजितवर्मन (879-897 ई.)हुआ। मतविलास प्रहसन की रचना महेन्द्रवर्मन ने की थी।
> महेन्द्रवर्मन शुरू में जैन-मतावलंबी था, परन्तु बाद में तमिल संत अप्पर के प्रभाव में आकर शैव बन गया था।
> महाबलीपुरम् के एकाश्म मंदिर जिन्हें रथ कहा गया है, का निर्माण पल्लव राजा नरसिंह वर्मन प्रथम के द्वारा करवाया गया था। रथ मंदिरों की संख्या सात है। रथ मंदिरों में सबसे छोटा द्रोपदी रथ है जिसमें किसी प्रकार का अलंकरण नहीं मिलता है।
> वातपीकोण्ड की उपाधि नरसिंहवर्मन प्रथम ने धारण की थी।
> अरबों के आक्रमण के समय पल्लवों का शासक नरसिंहवर्मन-II था । उसने ‘राजासिंह’ (राजाओं में सिंह), ‘आगमप्रिय’ (शास्त्रों का प्रेमी) और शंकरभक्त (शिव का उपासक) की उपाधियाँ धारण की। उसने काँची के कैलाशनाथ मंदिर का निर्माण करवाया जिसे राजसिद्धेश्वर मंदिर भी कहा जाता है। इसी मंदिर के निर्माण से द्रविड़ स्थापत्य कला की शुरुआत हुई। (महाबलिपुरम् में शोर मंदिर)
> काँची के कैलाशनाथ मंदिर में पल्लव राजाओं और रानियों की आदमकद तस्वीरें लगी हैं।
> दशकुमारचरित के लेखक दण्डी नरसिंहवर्मन (द्वितीय) के दरबार में रहते थे।
> काँची के मुक्तेश्वर मंदिर तथा बैकुण्ठ पेरूमाल मंदिर का निर्माण नन्दिवर्मन द्वितीय ने कराया।
> प्रसिद्ध वैष्णव संत तिरुमङ्गई अलवार नन्दिवर्मन द्वितीय के समकालीन थे।
राष्ट्रकूट
> राष्ट्रकूट राजवंश का संस्थापक दन्तिदुर्ग (752 ई.) था। शुरुआत में वे कर्नाटक के चालुक्य राजाओं के अधीन थे।
इसकी राजधानी मनकिर या मान्यखेत (वर्तमान मालखेड़, शोलापुर के निकट) थी।
> राष्ट्रकूट वंश के प्रमुख शासक थे : कृष्ण प्रथम, ध्रुव, गोविन्द तृतीय, अमोघवर्ष, कृष्ण-II, इन्द्र-III एवं कृष्ण-III ।
> एलोरा के प्रसिद्ध कैलाश मंदिर का निर्माण कृष्ण प्रथम ने करवाया था।
> ध्रुव राष्ट्रकूट वंश का पहला शासक था, जिसने कन्नौज पर अधिकार करने हेतु त्रिपक्षीय संघर्ष में भाग लिया और प्रतिहार नरेश वत्सराज एवं पाल नरेश धर्मपाल को पराजित किया।
> ध्रुव को ‘धारावर्ष’ भी कहा जाता था।
> गोविन्द तृतीय ने त्रिपक्षीय संघर्ष में भाग लेकर चक्रायुद्ध एवं उसके संरक्षक धर्मपाल तथा प्रतिहार वंश के शासक नागभट्ट-II को पराजित किया।
> पल्लव, पाण्ड्य, केरल एवं गंग शासकों के संघ को गोविन्दने नष्ट किया। अमोघवर्ष जैनधर्म का अनुयायी था। इसने कन्नड़ में कविराजमार्ग की रचना की।
> आदिपुराण के रचनाकार जिनसेन, गणितासार संग्रह के लेखक महावीराचार्य एवं अमोघवृत्ति के लेखक सक्तायना अमोघवर्ष के दरबार में रहते थे।
> अमोघवर्ष ने तुंगभद्रा नदी में जल-समाधि लेकर अपने जीवन का अंत किया।
> इन्द्र-III के शासन काल में अरब निवासी अलमसूदी भारत आया, इसने तत्कालीन राष्ट्रकूट शासकों को भारत का सर्वश्रेष्ठ शासक कहा।
> राष्ट्रकूट वंश का अंतिम महान शासक कृष्ण-III था। इसी के दरबार में कन्नड़ भाषा के कवि पोन्न रहते थे जिन्होंने शान्तिपुराण की रचना की।
> कल्याणी के चालुक्य तैलप-II ने 973 ई. में कर्क को हराकर राष्ट्रकूट राज्य पर अपना अधिकार कर लिया और कल्याणी के चालुक्य वंश की नींव डाली।
> एलोरा एवं एलिफेंटा (महाराष्ट्र) गुहामंदिरों का निर्माण राष्ट्रकूटों के समय ही हुआ।
> एलोरा में 34 शैलकृत गुफाएँ हैं। इसमें 1 से 12 तक बौद्धों, 13 से 29 तक हिन्दुओं एवं 30 से 34 तक जैनों की गुफाएँ हैं । बौद्ध गुफाओं में सबसे प्रसिद्ध विश्वकर्मा गुफा (संख्या-10) है। इसमें एक चैत्य है। वहाँ पर दो मंजिली और तीन मंजिली गुफाएँ भी हैं, जिन्हें दो थल तथा तीन थल नाम दिया गया है। एलोरा की गुफा 15 में विष्णु को नरसिंह अर्थात पुरुष-सिंह के रूप दिखलाया गया है। राष्ट्रकूट शैव, वैष्णव, शाक्त सम्प्रदायों के साथ-साथ जैन धर्म के
भी उपासक थे।
> राष्ट्रकूटों ने अपने राज्यों में मुसलमान व्यापारियों को बसने तथा इस्लाम के प्रचार की स्वीकृति दी थी।
चालुक्य वंश (कल्याणी)
> कल्याणी के चालुक्य वंश की स्थापना तैलप-II ने की थी। (राजधानी-मान्यखेट)
> चालुक्य वंश (कल्याणी) के प्रमुख शासक हुए-तैलप प्रथम, तैलप द्वितीय, विक्रमादित्य, जयसिंह, सोमेश्वर, सोमेश्वर-II, विक्रमादित्य-VI, सोमेश्वर-III एवं तैलप-III | सोमेश्वर प्रथम ने मान्यखेट से राजधानी हटाकर कल्याणी (कर्नाटक) को बनाया।
> इस वंश का सबसे प्रतापी शासक विक्रमादित्य-VI था। विल्हण एवं विज्ञानेश्वर विक्रमादित्य-VI के दरबार में ही रहते थे।
> मिताक्षरा (हिन्दू विधि ग्रंथ, याज्ञवल्क्य स्मृति पर व्याख्या) नामक ग्रंथ की रचना महान विधिवेत्ता विज्ञानेश्वर ने की थी।
> विक्रमांकदेवचरित की रचना विल्हण ने की थी। इसमें विक्रमादित्य-VI के जीवन पर प्रकाश डाला गया है।
चालुक्य वंश (वातापी)
> जयसिंह ने वातापी के चालुक्य वंश की स्थापना की, जिसकी राजधानी वातापी (बीजापुर के निकट) थी। इस वंश के
प्रमुख शासक थे—पुलकेशिन प्रथम, कीर्तिवर्मन, पुलकेशिन-II, विक्रमादित्य, विनयादित्य एवं विजयादित्य। इनमें सबसे प्रतापी राजा पुलकेशिन-II था।
> महाकूट स्तम्भ लेख से प्रमाणित होता है कि पुलकेशिन-II बहु सुवर्ण एवं अग्निष्टोम यज्ञ सम्पन्न करवाया था। जिनेन्द्र का मेगुती मंदिर पुलकेशिन-II ने बनवाया था।
> पुलकेशिन-II ने हर्षवर्द्धन को हराकर परमेश्वर की उपाधि धारण की थी। इसने ‘दक्षिणापथेश्वर’ की उपाधि भी धारण की थी। पल्लववंशी शासक नरसिंह वर्मन प्रथम ने पुलकेशिन-II को लगभग 642 ई. में परास्त किया और उसकी राजधानी बादामी पर अधिकार कर लिया। संभवतः इसी युद्ध में पुलकेशिन-II मारा गया। इसी विजय के बाद नरसिंहवर्मन ने ‘वातापिकोड’ की उपाधि धारण की।
> एहोल अभिलेख का संबंध पुलकेशिन-II से है। (लेखक-रविकीर्ति)
> अजन्ता के एक गुहाचित्र में फारसी दूत-मंडल को स्वागत करते हुए पुलकेशिन-II को दिखाया गया है।
> वातापी का निर्माणकर्ता कीर्तिवर्मन को माना जाता है।
> मालवा को जीतने के बाद विनयादित्य ने सकलोत्तरपथनाथ की उपाधि धारण की।
> विक्रमादित्य-II के शासनकाल में ही दक्कन में अरबों ने आक्रमण किया। इस आक्रमण का मुकाबला विक्रमादित्य के भतीजा पुलकेशी ने किया। इस अभियान की सफलता पर विक्रमादित्य-II ने इसे अवनिजनाश्रय की उपाधि प्रदान की।
> विक्रमादित्य-II की प्रथम पत्नी लोकमहादेवी ने पट्टदकल में विरूपाक्षमहादेव मंदिर तथा उसकी दूसरी पत्नी त्रैलोक्य देवी ने त्रैलोकेश्वर मंदिर का निर्माण करवायी।
> इस वंश का अंतिम राजा कीर्तिवर्मन द्वितीय था। इसे इसके सामंत दन्तिदुर्ग ने परास्त कर एक नये वंश (राष्ट्रकूट वंश) की स्थापना की।
> एलोरा को मंदिरों का शहर कहा जाता है।
चालुक्य वंश (बेंगी)
> बेंगी के चालुक्य वंश का संस्थापक विष्णुवर्धन था । इसकी राजधानी बेंगी (आन्ध्र प्रदेश) में थी।
> इस वंश के प्रमुख शासक थे : जयसिंह प्रथम, इन्द्रवर्धन, विष्णुवर्धन द्वितीय, जयसिंह द्वितीय एवं विष्णुवर्धन-III.
> इस वंश के सबसे प्रतापी राजा विजयादित्य तृतीय था, जिसका सेनापति पंडरंग था।
चोल
> 9वीं शताब्दी में चोल वंश पल्लवों के ध्वंसावशेषों पर स्थापित हुआ। इस वंश के संस्थापक विजयालय (850-87 ई.)थे जिसकी राजधानी तांजाय (तंजौर या तंजावूर) था। तंजावूर का वास्तुकार कुंजरमल्लन राजराज पेरूथच्चन था।
> विजयालय ने नरकेसरी की उपाधि धारण की और निशुम्भसूदिनी देवी का मंदिर बनवाया। चोलों का स्वतंत्र राज्य आदित्य प्रथम ने स्थापित किया।
> पल्लवों पर विजय पाने के उपरान्त आदित्य प्रथम ने कोदण्डराम की उपाधि धारण की।
> चोल वंश के प्रमुख राजा थे—परांतक-I, राजराज-I, राजेन्द्र-I, राजेन्द्र-II एवं कुलोत्तुंग। तक्कोलम के युद्ध
में राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण-III ने परांतक-I को पराजित किया। इस युद्ध में परांतक-I का बड़ा लड़का राजादित्य
मारा गया।
> राजराज प्रथम ने श्रीलंका पर आक्रमण किया। वहाँ के राजा महिम-V को भागकर श्रीलंका के दक्षिण जिला रोहण में शरण लेनी पड़ी।
> राजराज-I श्रीलंका के विजित प्रदेशों को चोल साम्राज्य का एक नया प्रांत मुम्डिचोलमंडलम बनाया और पोलन्नरुवा को इसकी राजधानी बनाया।
> राजराज- शैव धर्म का अनुयायी था। इसने तंजौर में राजराजेश्वर का शिवमंदिर बनाया।
> चोल साम्राज्य का सर्वाधिक विस्तार राजेन्द्र प्रथम के शासनकाल में हुआ है। बंगाल के पाल शासक महिपाल को पराजित करने के बाद राजेन्द्र प्रथम ने गंगैकोडचोल की उपाधि धारण की और नवीन राजधानी गंगैकोड चोलपुरम् के निकट चोलगंगम नामक विशा ल तालाब का निर्माण करवाया।
> विक्रम चोल अभाव एवं अकाल से ग्रस्त गरीब जनता से राजस्व वसूल कर चिदंबरम् मंदिर का विस्तार करवा रहा था।
> कलोतुंग-II ने चिदम्बरम् मंदिर में स्थित गोविन्दराज (विष्णु) की मूर्ति को समुद्र में फेंकवा दिया। कालान्तर में वैष्णव आचार्य रामानुजाचार्य ने उक्त मूर्ति का पुनरुद्धार किया और उसे तिरुपति के मंदिर में प्राण प्रतिष्ठित किया।
> चोल प्रशासन में भाग लेने वाले उच्च पदाधिकारियों को पेरुन्दरम् एवं निम्न श्रेणी के पदाधिकारियों को शेरुन्दरन कहा जाता था। लेखों में कुछ उच्चाधिकारियों को उडनकूटम् कहा गया है जिसका अर्थ है-सदा राजा के पास रहने वाला अधिकारी।
> सम्पूर्ण चोल साम्राज्य 6 प्रांतों में विभक्त था। प्रांत को मंडलम् कहा जाता था। मंडलम् कोट्टम् में, कोट्टम् नाडु में एवं नाडु कई कुर्रमों में विभक्त था।
> नाडु की स्थानीय सभा को नाटूर एवं नगर की स्थानीय सभा को नगरतार कहा जाता था।
> बेल्लाल जाति के धनी किसानों को केन्द्रीय सरकार की देख-रेख में नाडु के काम-काज में अच्छा-खासा नियंत्रण हासिल था। उनमें से कई धनी भू-स्वामियों को चोल राजाओं के सम्मान के रूप में मुवेदवेलन (तीन राजाओं को अपनी सेवाएं प्रदान करने वाला वेलन या किसान) अरइयार (प्रधान) जैसी उपाधियाँ दी उन्हें केन्द्र में महत्वपूर्ण राजकीय पद सौंपे ।
> स्थानीय स्वशासन चोल प्रशासन की मुख्य विशेषता थी।
> उर सर्वसाधारण लोगों की समिति थी, जिसका कार्य होता था सार्वजनिक कल्याण के लिए तालाबों और बगीचों के निर्माण हेतु गाँव की भूमि का अधिग्रहण करना ।
> सभा या महासभा : यह मूलतः अग्रहारों और ब्राह्मण बस्तियों की सभा थी, जिसके सदस्यों को पेरुमक्कल कहा जाता था। यह सभा वरियम नाम की समितियों के द्वारा अपने कार्य को संचालित करती थी। सभा की बैठक गाँव में मंदिर के निकट वृक्ष के नीचे या तालाब के किनारे होती थी।
> व्यापारियों की सभा को नगरम कहते थे।
> चोल काल में भूमिकर उपज का 1/3 भाग हुआ करता था।
> गाँव में कार्यसमिति की सदस्यता के लिए जो वेतनभोगी कर्मचारी रखे जाते थे, उन्हें मध्यस्थ कहते थे।
> ब्राह्मणों को दी गई करमुक्त भूमि को चतुर्वेदि मंगलम् एवं दान दी गयी भूमि ब्रह्मदेय कहलाती थी।
> चोल सेना का सबसे संगठित अंग था-पदाति सेना।
> चोल काल में कलजु सोने के सिक्के थे।
> तमिल कवियों में जयन्गोंदर प्रसिद्ध कवि था, जो कुलोर्तुंग प्रथम का राजकवि था। उसकी रचना है—कलिंगतुपर्णि
> कंबन, औट्टक्कुट्टन और पुगलेंदि को तमिल साहित्य का त्रिरत्न कहा जाता है।
> पंप, पोन्न एवं रन्न कन्नड़ साहित्य के त्रिरत्न माने जाते हैं।
> पर्सी ब्राऊन ने तंजौर के बृहदेश्वर मंदिर के विमान को भारतीय वास्तुकला का निकष माना है।
> चोलकालीन नटराज प्रतिमा को चोल कला का सांस्कृतिक सार या निचोड़ कहा जाता है।
> चोल कांस्य प्रतिमाएँ संसार की सबसे उत्कृष्ट कांस्य प्रतिमाओं में गिनी जाती हैं।
> शैव सन्त इसानशिव पंडित राजेन्द्र-I के गुरु थे।
> चोलकाल (10वीं शताब्दी) का सबसे महत्वपूर्ण बन्दरगाह कावेरीपट्टनम था।
> बहुत बड़ा गाँव, जो एक इकाई के रूप में शासित किया जाता था, तनियर कहलाता था।
> उत्तरमेरूर शिलालेख, जो सभा-संस्था का विस्तृत वर्णन उपस्थित करता है, परांतक प्रथम के शासनकाल से संबंधित है।
> चोलों की राजधानी कालक्रम के अनुसार थी-उरैयूर, तंजौड़, गंगैकोंड, चोलपुरम् एवं काँची।
> चोल काल में सड़कों की देखभाल बगान समिति करती थी।
> चोलकाल में आम वस्तुओं के आदान-प्रदान का आधार धान था।
> चोल काल के विशाल व्यापारी-समूह निम्न थे—वलंजियार, नानादैसी एवं मनिग्रामम्।
> विष्णु के उपासक अलवार एवं शिव के उपासक नयनार संत कहलाते थे।
यादव वंश
> देवगिरि के यादव वंश की स्थापना भिल्लम पंचम ने की। इसकी राजधानी देवगिरि थी।
> इस वंश का सबसे प्रतापी राजा सिंहण (1210-1246 ई.) था।
> इस वंश का अंतिम स्वतंत्र शासक रामचन्द्र था, जिसने अलाउद्दीन के सेनापति मलिक काफूर के सामने आत्मसमर्पण किया।
होयसल वंश
> द्वार समुद्र के होयसल वंश की स्थापना विष्णुवर्धन ने की थी।
> होयसल वंश यादव वंश की एक शाखा थी।
> बेलूर में चेन्ना केशव मंदिर का निर्माण विष्णुवर्धन ने 1117 ई. में किया था।
> होयसल वंश का अंतिम शासक वीर बल्लाल तृतीय था, जिसे मलिक काफूर ने हराया था।
> होयसल वंश की राजधानी द्वार समुद्र (आधुनिक हलेविड) था।
कदम्ब वंश
> कदम्ब वंश की स्थापना मयूर शर्मन ने की थी। कदम्ब वंश की
राजधानी वनवासी था।
गंगवंश
> गंगवंश संस्थापक बज्रहस्त पंचम था।
> अभिलेखों के अनुसार गंगवंश के प्रथम शासक कोंकणी वर्मा था।
> गंगों की प्रारंभिक राजधानी कुवलाल (कोलर) थी, जो बाद में तलकाड हो गयी।
> ‘दत्तकसूत्र’ पर टीका लिखने वाला गंग शासक माधव प्रथम था।
काकतीय वंश
> काकतीय वंश का संस्थापक बीटा प्रथम था, जिसने नलगोंडा (हैदराबाद) में एक छोटे-से राज्य का गठन किया, जिसकी राजधानी अंमकोण्ड थी।
> इस वंश का सबसे शक्तिशाली शासक गणपति था। रुद्रमादेवी गणपति की बेटी थी, जिसने रुद्रदेव महाराज का नाम ग्रहण किया, जिसने 35 वर्ष तक शासन किया।
> गणपति ने अपनी राजधानी वारंगल में स्थानान्तरित कर ली थी।
> इस राजवंश का अंतिम शासक प्रताप रुद्र (1295-1323 ई.) था।